Sunday, March 22, 2009

कुछ सुंदर पंक्तियाँ

हाल ही में फिर से हिन्दी साहित्य की ओर जाने का मौका मिला, तो ऐसा लगा जैसे वर्षों की तलाश पूरी हो गयी। यहाँ दो पंक्तियाँ जिन्होंने दिल को तरंगित कर दिया:

- कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ कि सब कुछ उथल-पुथल हो जाए...

-जब भी अतीत में जाता हूँ, मुर्दों को नहीं जिलाता हूँ
पीछे हटकर फेंकता हूँ बाण, जिससे कम्पित हो वर्तमान

मुझे किसी भाषा से कोई आपत्ति नहीं है, मैं उनमें से भी नहीं जो सोचते हैं कि अंग्रेज़ी की लोकप्रियता से हमारी संस्कृति भ्रष्ट हो रही है। लेकिन फिर से हिन्दी पढने से अपने समृद्ध साहित्य की ओर मेरा ध्यान गया। मुझे लगा कि जो हमारा है, उसे हम क्यों भुला दें? क्यों उसे संजोने की, उससे कुछ सीखने की कोशिश न करें? हमारी भाषाओं का साहित्य हमारे अतीत की कहानी है, हमारा सच है। उसे भुलाना मतलब अपनी जड़ों से नाता तोड़ लेना। क्या तभी आज हम इतना भटक रहे हैं? क्योंकि हम अपने कल से नाता तोड़ चुके और आज में अपना अस्तित्व ढूंढ रहे हैं?

हिन्दी से फिर से नाता जोड़ने से कुछ ऐसे महापुरुषों से भी मेल हुआ, जिन्होंने अपने समय में भाषा को बढ़ावा ही नहीं दिया, भाषा को अपनी संगिनी बनाया। उनमें से एक हैं भारतेंदु हरिश्चंद्र, और दूसरे हैं संत कबीर। इनको पढने से भाषा की ताकत का अनुमान हुआ, कलम की ताकत क्या होती है, इसका पता चला। कबीर के बारे में तो सचमुच लगता है कि इतने हजार वर्षों बाद भी, वह जो बोल रहे हैं, आज के बारे में बोल रहे हैं। और क्या साफ़, सपाट भाषा में बोलते हैं कि बात सीधी दिल तक पहुंचे, सोचने पर मजबूर करे। अंत में इनकी कुछ पंक्तियाँ:

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोई।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होई॥

काकर पत्थर जोड़ के, मस्जिद लिए बनाय।
तो चढी मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय॥